इसकी चर्चा की शुरुआत जोगेंद्र नाथ मंडल(1904 – 1968) की चर्चा से होनी चाहिये क्योंकि उनकी चर्चा के बिना इस यथार्थ को समझना असंभव है।
जोगेंद्र नाथ मंडल, डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर(1891 – 1956) के द्वारा संस्थापित पोलिटिकल पार्टी “शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ( Scheduled Caste Federation, SCF)” के बंगाल प्रभारी थे और अविभाजित बंगाल के सर्वमान्य और सबसे लोकप्रिय दलित नेता भी थे।
उनकी लोकप्रियता का स्तर यह था कि जब अम्बेडकर संविधान सभा में चुने जाने के लिये, अपने क्षेत्र महाराष्ट्र से चुनाव हार गये थे तो जोगेंद्र नाथ ने उन्हें बंगाल से चुनाव लड़वाकर और दलित- मुस्लिम लीग(Muslim League) गठबंधन के दम पर उन्हें चुनाव जीतवा कर संविधान सभा में भेजा था।
जोगेंद्र नाथ मंडल का मानना था कि दलित और मुस्लिम दोनों के सामाजिक और आर्थिक स्थिति एक समान है और दोनों ही भारत में शोषित वर्ग हैं। अपनी इसी सोच और जिन्नाह के प्रोत्साहन और आश्वासन के चलते उन्होंने अम्बेडकर के घोर विरोध के बावजूद हमेशा मुस्लिम लीग और पाकिस्तान के गठन का साथ दिया। यहाँ तक कि 1946 के हिन्दू- मुस्लिम दंगो के दौरान घूम घूम कर पूरे बंगाल के दलितों को मुस्लिम लीग के साथ मिलकर हिंदुओं के विरुद्ध लड़ने को बड़ी मुखरता से प्रोत्साहित किया।
1946 में अंग्रेजों के द्वारा गठित अंतरिम सरकार में वो मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि रहे तथा पाकिस्तान के गठन के बाद वे पाकिस्तान के पहले कानून और श्रम मंत्री(Minster of Law & Labour) रहे।
पर;
पाकिस्तान के गठन के बाद वहां हिंदुओं और दलितों पर हो रहे अमानवीय अत्ययाचार से उनका पाकिस्तान से ऐसा मोहभंग हुआ कि 1950 में वे अपना इस्तीफा दे कर पुनः भारत आ गये और पश्चिम बंगाल में पश्चयाताप और अज्ञातवास का जीवन जीने लगे और कुछ वर्षों के पश्चात इसी परिस्थिति में सन् 1968 में उनकी मृत्यु हो गई।
पाकिस्तान बनने के बाद वहां के स्थानीय मुस्लिमों ने कैसे वहां की सरकार, सेना और पुलिस के साथ मिलकर हिन्दू सवर्णों और हिन्दू दलितों को लूटा, उनकी महिलाओं पर अत्ययाचार और उनके साथ अमानवीय व्यवहार किये और कैसे जोगेंद्र नाथ के बार बार बताये जाने के बावजूद तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधान मंत्री लियाकत अली खान उनकी बातों को व्यर्थ व महत्वहीन मानते रहे इन सारी बातों का स्पष्ट वर्णन स्वंय उनके त्याग पत्र में है जिसे उन्होंने भारत लौटने के पहले पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को सौंपा था। (online जा कर उसे कोई भी पढ़ सकता है।)
दूसरा;
धर्मांतरण की बात करते हैं!,
क्या इस्लाम में वर्गीकरण नही है?
अगर नही तो “अशरफ(Ashraf)” और “अज़लफ(Ajlaf)” वर्ग क्या है?
कईं स्थानों पर उनकी मस्जिदें भी अलग अलग क्यों है?
क्यों आरक्षण में आने वाले अधिकतर मुस्लिम अज़लफ वर्ग से हैं?
क्यों अशरफ वर्ग के कोई मुस्लिम OBC वर्ग में नही आते हैं?
क्यों मीनाक्षीपुरम की घटना जहाँ 1980 में 300 दलित परिवारों ने एक साथ इस्लाम कबूल किया था को समाज शास्त्री “एक प्रयोग जो एक भूल साबित हुई” कहते हैं?
इतिहास गवाह है धर्मांतरण से किसी की सामाजिक - आर्थिक स्थिति नही बदली है। शासक वर्ग के जो लोग इस्लाम कबूल कर पाकिस्तान गये वो वहां जा कर भी शासक ही रहे, कुछ प्रमुख नाम तो सभी को पता है, दूसरी तरफ कमजोर सामाजिक-आर्थिक स्थिति के लोग जिन्होंने इस्लाम कबूल किया उनका हश्र भी सभी को पता है, मीनाक्षीपुरम इस का सटीक उदहारण है।
सच्चाई यह है कि हिंदुत्व और भारत से दलितों को जो मिला है वो संसार में अद्वितीय है। कुछ उदाहरण अगर उनके विरूद्ध है तो बहुत सारे उदाहरण उनके पक्ष में भी है।
क्या नामदेव, कबीर, रामदास, रैदास(मीराबाई के गुर) जैसे महापुरषों को दलित होने के पश्चात हिंदुत्व में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त नही है?
क्या महर्षि वेद व्यास जो कि एक मछुआरन के पुत्र थे, द्वारा रचित महाभारत अथवा प्रमुख १८ पुराणों को हिंदुत्व में सर्वोच्च स्थान नही प्राप्त है?
अगर हम आधुनिक भारत की इतिहास की भी बात करें यानी कि सन 1850 के बाद के भारत की बात। तो कितने दलितों को झलकारी बाई के बारे में पता है। वो झलकारी बाई जिनके बारे में अंग्रेजों ने कहा था कि यदि झलकारी बाई जैसी और सौ वीरांगना भी रानी लक्ष्मीबाई की सेना में होती तो अंग्रेजो को 1857 में ही भारत से भागना पड़ जाता। वीरांगना झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई की महिला ब्रिगेड की सेनापति थी।
बाबू जगजीवन राम, जो अपने जीवन काल में एक भी, कोई भी चुनाव नहीं हारे थे। क्या उनका ये रिकॉर्ड बिना सवर्णों के सहयोग के था। बाबू जगजीवन राम तो भारत के उप-प्रधानमंत्री तक बने थे। क्या कोई इस बात से इनकार कर सकता है कि बसपा प्रमुख सुश्री मायावती की प्राणों की रक्षा करने वाले भाजपा के ब्राह्मण नेता लालजी टंडन थे।
बात अगर डॉ अम्बेडकर की भी कर लें, तो
क्या डॉ अम्बेडकर को सवर्णों का सहयोग नही प्राप्त था?
क्या आज के सर्वमान्य दलित नेताओं को सवर्णों का सहयोग नही प्राप्त है?
भारतीय संविधान में दलितों को जो अधिकार प्राप्त है, क्या संसार में उसका कोई दूसरा उदहारण भी है?
वामपंथी और आजके स्वयंभू दलित नेता, दलितों को ये पढ़ाते नहीं थकते की डॉ अम्बेडकर हिंदुओं के खिलाफ थे। हाँ! थे वो हिंदुओं के खिलाफ, वे हिंदुओं में छुआ छुत और दूसरी कुरीतियों के खिलाफ थे।
और इसकेलिये उन्होंने “दलितों के मंदिर में प्रवेश” जैसे आंदोलन भी चलाये थे। उनके खुद के वक्तव्य के अनुसार “...........अगर मुझे हिंदुओं से क्रोध है तो यह इसलिए है क्योंकि मुझे यकीन है कि वे गलत आदर्शों को पालते हैं और एक गलत सामाजिक जीवन जीते हैं”।
बाद में उन्होंने हिन्दू धर्म को छोड़ कर बौद्ध धर्म को अपना लिया। जिसके “क्यों?” के जवाब में, कलकत्ता महाबोधि ट्रस्ट के 1950 में प्रकाशित मासिक पत्रिका में डॉ आंबेडकर द्वारा लिखित एक लेख “Buddha and the Future of his Religion” में स्वयं डॉ अम्बेडकर लिखते हैं “वे (बुद्ध) चाहते थे कि उनके ‘धर्म पर भूतकाल के मुर्दा बोझ न लादे जायें। उनका धर्म सदाबहार रहे और सभी वक्त के लिये उपयोगी भी हो’ यही कारण था कि उन्होंने अपने अनुयायियों को जरूरत पड़ने पर धर्म को संवारने-सुधारने की स्वतंत्रता दी।” (यह लेख डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर राटिंग्स एंड स्पीचेज के खंड 17 के भाग- 2 में संकलित है) यानी उनके व्यक्तिगत विचार थे कि “बौद्ध धर्म में सुधार, संशोधन और विकास की संभावना है जबकि हिन्दू धर्म में ऐसा नहीं है।”(मेरे द्वारा ऊपर उपयोग किया गया शब्द “व्यक्तिगत विचार”, तर्क का विषय हो सकता है पर मैं इस लेख में उसपर विस्तार से जाने की उपयोगिता नहीं समझता)
पर ये वामपंथी और ये आज के स्वयंभू दलित नेता उतना ही बताते हैं जितना उनके नैरेटिव को suit करे, जो उनके राजनीतिक-आर्थिक स्वार्थों को पूरा करे। वे दलितों को ये नहीं बताते की बाबा साहेब अम्बेडकर के विचार इस्लाम & मुसलमानों के बारे में क्या थे। इन तथ्यों पर डॉ अम्बेडकर की खुद की लिखी किताबों में से जो नाम विशेष उल्लेखनीय हैं वो हैं “Thoughts on Pakistan (1940)” या/और “Pakistan or the partition of India (1945)”। इन तथ्यों पर बात करो तो ये वामपंथी उन वक्तव्यों के प्रसंग और संदर्भ की बात करने लग जायेंगे। यानी तर्क न सूझे तो प्रसंग और संदर्भ पे बहस घुमा देने का वामपंथी पैंतरा।
मैं इन्ही किताबों में से, इस्लाम और मुसलमानों के बारे में अम्बेडकर के विचार और वक्तव्य प्रस्तुत कर रहा हूँ।
पाकिस्तान बन जाने के बाद सारे मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाना चाहिये।
हिंदू धर्म लोगों को विभाजित करने वाला कहा जाता है और इसके विपरीत, इस्लाम में लोगों को एक साथ बांधने वाला बताया जाता है। यह केवल आधा सच है। इस्लाम एक संवृत समूह (बंद-समूह) है और मुसलमानों और गैर-मुस्लिमों के बीच जो अंतर है, वह एक बहुत ही वास्तविक, और बहुत अलग-थलग करने वाला है। इस्लाम का भाईचारा मनुष्य का सार्वभौमिक भाईचारा नहीं है। गैर-मुसलमानों के लिये इस्लाम में अवमानना और दुश्मनी के अलावा कुछ नहीं है।
इस्लाम विश्व को दो भागों में बांटता है, जिन्हें वे दारुल-इस्लाम तथा दारुल-हरब मानते हैं। जिस देश मे इस्लाम का शासन है वो दारुल-इस्लाम है। लेकिन जिस किसी भी देश में जहां मुसलमान रहते हैं परन्तु उनका राज्य नहीं है, वह दारुल-हरब होगा। इस दृष्टि से भारत भी उनके लिये दारुल-हरब मात्र है।
सभी का अनुमान है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होगा। गुलामी के बारे में कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है। यह कानून द्वारा अब समाप्त हो गया है। लेकिन जब यह अस्तित्व में था, तो इसका अधिकांश समर्थन इस्लाम से प्राप्त हुआ था। ..........अब जब गुलामी चली गई है, तो उसकी जगह मुसलामानों के बीच जाति बनी हुई है।
जहाँ भी इस्लाम का शासन है, वहाँ उसका अपना देश है। दूसरे शब्दों में, इस्लाम कभी भी एक सच्चे मुसलमान को अपनी मातृभूमि के रूप में भारत को अपनाने और एक हिंदू को अपने परिजनों और रिश्तेदारों के रूप में अपनाने की अनुमति नहीं दे सकता।
क्या कोई वामपंथी बुद्धिजीवी मुझे बाबासाहेब के उपरोक्त वक्तव्यों के प्रसंग और संदर्भ समझायेगा। “मुझे पाठकों से अनुरोध है कि वो एक बार उपरोक्त पुस्तकों को खुद जरूर पढ़ें।”
इतना ही नहीं एक रिसर्च पेपर “Islamic Jihad: A Legacy of Forced Conversion, Imperialism, and Slavery” में रिसर्चर; डॉ अम्बेडकर को ये कहते हुए भी उद्धरण करते हैं कि “............इस्लाम ने बौद्ध धर्म को न केवल भारत में नष्ट किया, बल्कि जहाँ भी गया वहाँ किया। इस्लाम के अस्तित्व में आने से पहले बैक्ट्रिया, पार्थिया, अफगानिस्तान, गांधार और चीनी तुर्कस्तान में बौद्ध धर्म था,...। "
दलितों को इन बातों को समझना होगा और इन सच्चाइयों को स्वीकार करना होगा।
दलितों को इस सच्चाई को भी स्वीकारना होगा कि कुछ सहायता उन्हें खुद से भी खुद की करनी है।
एक बार बाबासाहेब अम्बेडकर ने अपने सचिव नानकचंद रातू ( Nanakchand Rattu) से कहा था “मैंने सोचा था कि वो दलित जो खुद के बल पर या सरकार के प्रोत्साहन से आज प्रगति कर गये हैं वो मेरे हाथ, मेरे ताकत बनेंगे और कुछ न कुछ दलितों के उत्थान के लिये अवश्य करेंगे पर वो लोग तो अपने और अपने परिवार तक ही सीमित हो गये हैं और अपने को दलित समाज से अलग कर लिया है। और तो और, कुछ तो अब अपने को दलित कहलाना भी पसंद नही करते।“ नानकचंद लिखते हैं कि ऐसा कहते कहते बाबासाहेब की आंखों से आंसू निकल पड़े थे।
यह सच और स्वीकार्य है कि “दलितों के उत्थान के लिये अभी भी बहुत कुछ होना बाकी है।“ पर दलितों को वो प्राप्ति हिदुत्व और भारतीय संविधान के दायरे में ही प्राप्त होगी।
देश के विरूद्ध जा कर और अपने ही धर्म के देवी-देवताओं को अपमानित कर, आपसी वैमनस्यता के अतिरिक्त कुछ नही मिलने वाला।
दलितों को ये भी सोचना होगा कि कहीं वे देश विरोधी ताकतें, विदेशी षड्यंकारियों और उनके गुलाम चंद स्वार्थी राजनीतिज्ञों की हाथों के कठपुतली तो नही बन रहे। जो विदेशी ताकतें और उनके नुमाइंदे आज दलितों के तारणहार बनने की कोशिश कर रहे हैं, उन्होंने वैसा पिछले 270 साल(दो सौ सत्तर साल) में क्यों नही किया?
आज के स्वयंभू दलित नेता क्यों दलितों को CAA का विरोध करना सिखाते है? क्यों जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने पर विरोध करते हैं? जबकि हकीकत ये है कि जिन शरणार्थियों के मद्देनजर ये CAA लाया गया है उन लाभार्थी शरणार्थियों में “सबसे बड़ी” संख्या हिन्दू-दलितों की है। कश्मीर से 35A हटने का भी बहुत बड़ा फायदा कश्मीर के उन हिन्दू-दलितों को मिला जिनके लिये कश्मीर के अपने संविधान में ये लिखा था कि “ये या इनके आने वाली पीढ़ी चाहे कितना भी पढ़ लिख जाये, इन्हें या उन्हें अगर कश्मीर में रहना है तो उन्हें कश्मीर में सिर्फ और सिर्फ भंगी की नौकरी करनी होगी”।
स्वर्णो से लड़वाने के बाद फिर से दलितों साथ धोखा नहीं होगा, इसकी क्या गारन्टी है।
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धन्यवाद 🙏
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने
ReplyDeleteBeautiful Sir, अपने तो दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। सभी को आप यह आर्टिकल पढ़ना चाहिए । Keep it up👏👏👍
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