राष्ट्रहित के लंबित मामलों को मोदी सरकार ने जिन सूझबूझ, नेक नियति और समर्पण से मुकम्मल किया है, वो अतुलनीय है। ये मोदी जी और मोदी सरकार की राष्ट्रवादी सोच और राष्ट्रवादी नियत है जो पूरे देश को प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के साथ सतत खड़े होने को बाध्य करती है। ये उल्लेखनीय तथा प्रसंसनीय है। फिर !, मोदी जी के चाहने वालों में से एक वर्ग; देश का आर्थिक स्तम्भ; देश के निम्न-मध्यम-वर्गीय व्यापारी वर्ग मायूस क्यों है ?
एक पत्रकार की हैसियत से मैंने जमिनी स्तर पर जो महसूस किया, देख कर अथवा आम/खास से बात कर जो अनुभव किया, यहाँ साझा कर रहा हूँ।
आदर्श स्थिति की अपेक्षा आप हमेशा के लिये नहीं कर सकते। अपने और अपने परिवार के लिये सम्मान सहित रोटी, मनुष्य की एक ऐसी नुयनतम आवश्यकता है, जिसके पूरा न होने पर आपको बहुत प्यार करनेवाला व्यक्ति भी आपको छोड़ कर जाने को विवश हो जाता है, भले ही वो कदम उसके लिये आत्मघाती हो। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के असीम प्रसंशकों में भी जो उदासीनता है वो भी उपरोक्त विवशता के सदृश है। वो मायूसी मोदी सरकार की आर्थिक-नीति/ आर्थिक-नीतियों-के-क्रियान्वयन को ले कर है। नीतियाँ अगर सही भी है तो क्रियान्वयन दोषरहित नहीं हैं।
कुछ आर्थिक नीतियाँ और उनके क्रियान्वयन; बिजनेस क्लास, खास कर निम्न-मध्यम वर्गीय बिजनेस क्लास, के दृष्टिकोण से व्यवहारिक नहीं हैं। (निम्न-मध्यम वर्गीय बिजनेस क्लास से मेरा तात्पर्य उन कंपनियों/फर्म से है जिनका सालाना टर्नओवर 4-5 करोड़ से ले कर 40-50 करोड़ के आस पास तक का है। देश में ऐसी कंपनियों की संख्या बहुत बड़ी है तथा कम-सैलरी के रोजगार उपलब्ध कराने में इस वर्ग का कोई विकल्प नहीं) इन नीतियों के चलन, “इज़ ऑफ बिजनेस” को बढ़ावा न देकर उल्टा उसमें रुकावट पैदा करती हैं।
कुछ स्थापित तकलीफ देय पहलुओं को उदाहरणस्वरूप लेते हुए, यहाँ उनपर बिंदुवार चर्चा करते हैं।
वर्तमान आर्थिक नीतियों के चलन के मद्देनजर, व्यवहारिकता में, चालू-खाता का किसी एक बैंक में होने की अनिवार्यता हो गई है। जिसके परिणामी, व्यवहारिकता में, बैंक तथा टैक्स संबंधित अफसरशाही ऊपर उल्लेखित वर्ग पर हावी हो चला है। चूंकि ये कम पूंजी से व्यापार करने वाले लोग होते हैं तथा बैंक में इनके रोज़ के लेनदेन भी छोटे रकमों के होते हैं, अफसरों की नज़र में इनका कोई विशिष्ट स्थान नहीं होता। छोटे-छोटे मामले, उदाहरणतः अपने प्रोजेक्ट के लिये लोन मिल पाना, बैंक गारंटी मिल पाना अथवा/और प्रोजेक्ट हेतू आर्थिक सहयोग मिल पाना सब व्यवहारिक तौर पर इस बात पर निर्भर हो जाता है कि व्यापारी-विशेष के संबंध तत्कालीन-संबंधित-बैंक-अफसर के साथ कैसे हैं। अलावा इसके, दूसरे छोटे मुद्दे उदाहरणतः निविदा के साथ सलग्न करने हेतू बैंक ड्राफ्ट बनाना, ये भी अगर निविदा-कर्ता से संबंधित बैंक न बनाना चाहे अथवा किसी छूट्टी अथवा दूसरे परिस्थिति वश न बना पाये, तो इस वर्ग के व्यपारियों के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं रह जाता क्योंकि दूसरे किसी बैंक में खाता नहीं होता तथा/अथवा पास में जरूरत भर लिक्विड-कैश नहीं होता कि कैश देकर दूसरे बैंक से बनवा लें। बैंक अधिकारियों के अलावा टैक्स-संबंधित-अधिकारी भी इस परिस्थिति का नाजायज फायदा ले लेने की स्थिति में होते हैं। उदाहरणतः आयकर या जी.एस.टी के कर-विवरणी में हो जाने वाले कुछ नुयनतम, स्वाभाविक अथवा व्यवहारिक गलती के लिये भी संबंधित अधिकारी, बैंक अधिकारी से मिल कर उस व्यापारी-विशेष के वितीय लेन-देन रुकवा देने की धमकी देते हैं अथवा रुकवा देते हैं, ऐसी परिस्थिति में इस वर्ग के व्यापारी की हालात ऐसे भी नहीं होती है की वो अपने व्यापार के न्यूनतम–रोजमर्रा-के-अनिवार्य-खर्च भी उठा सके, जबकि उसके द्वारा की गई गलती बहुत न्यूनतम थी। एक और उदहारण – उदाहरणस्वरूप एक “व्यापारी विशेष” जो एक से ज्यादा राज्य में कंसलटेंट अथवा कॉन्ट्रैक्टर के रूप में व्यापार करता हो, उसके साथ ये स्वाभाविक परिस्थिति हो सकती है कि किसी एक “साल विशेष” में किसी एक “राज्य विशेष” में उसके पास कोई प्रोजेक्ट न हो अथवा उसने प्रतिस्पर्धा के कारण कोई कार्य बहुत कम “मुनाफे के अंतर” से उठा लिया हो। दूसरी ओर संभावना ये भी है कि किसी दूसरे साल उसके पास ढेर सारे प्रोजेक्ट हो वो भी अच्छे मुनाफे वाले। उपरोक्त वर्णन का तात्पर्य ये है कि “उपरोक्त वर्णित व्यापारी” की परिस्थिति में ये स्वाभाविक है कि उसके अगर एक से ज्यादा सालों “कर विवरणी” की तुलना की जाय तो उसमें “तीव्र उतार” या “तीव्र चढ़ाव” पाया जाय जो कि उपरोक्त वर्णित परिस्थितिवश स्वाभाविक हो सकती है जबकि कथित व्यापारी ने कर विवरणी पूरी ईमानदारी से भरी हो। पर वर्तमान चलन में ऐसी परिस्थिति में कर अधिकारियों द्वारा वर्णित व्यापारी वर्ग को परेशान किया जाता है। इसका स्पष्टीकरण मैं एक अन्तःकथा जो एक सत्यकथा है से करना चाहूँगा। आज सुबह ही मेरे एक व्यापारी मित्र का फ़ोन आया। उसने बताया कि बीते कल उसके पास दो जी.एस.टी अधिकारी आये थे जिन्होंने उस व्यापारी को धमकाया की चूंकि “फलाना राज्य” में उसका जी.एस.टी रिटर्न्स “जीरो” हैं वो उसके फलाना राज्य के जी.एस.टी रेजिस्ट्रेशन को निरस्त कर देंगे, और वो ऐसा न करें, उसके एवज में वो “पांच हज़ार” रूपया ले गये। सरकार लाख कार्यविधि/ प्रक्रिया का कम्प्यूटराइजेशन/ केंद्रीकरण करा ले, कार्यन्वयन तो इन्हों ने ही करनी है।
एक और परिस्थिति हम GST के अंतर्गत का देखते हैं। “एक देश, एक टैक्स” वास्तविकता में जमीनी हकीकत नहीं है। वर्तमान जमीनी हक़ीक़त में यदि किसी व्यापारी को एक से ज्यादा राज्यों में काम करना होता है तो उसे हर उन राज्य-विशेष के अंतर्गत जी.एस.टी रेजिस्ट्रेशन करवाना होता है, जिन-जिन राज्यों में वो काम करना चाहता है। अर्थात हर रेजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया तथा हर एक का यथा-समय/ यथा-विधि रिटर्न्स के लिये अतरिक्त धन और समय। ऊपर से अगर मामला कुछ ऐसा हो कि किसी राज्य में उसके अपने कुछ पैसे निकल रहे हों और किसी दूसरे राज्य में उसे उस तथाकथित रकम के बराबर या कम भी जमा कराने हों, तो ऐसे मामलों में भी उसे कथित दूसरे राज्य में अपने पास से पैसे जमा कराने पड़ते हैं जबकि उससे ज्यादा उसके खुद का पैसा, उस तथाकथित “एक राष्ट्र, एक टैक्स” प्रणाली के अंतर्गत किसी अन्य राज्य में फंसा पड़ा होता है।
उपरोक्त तथ्यों के परिणामी आज छोटा व्यापार भी बड़ी पूंजी का मोहताज बन चुका है जो उपरोक्त कथित निम्न-मध्यम-व्यापारी-वर्ग और स्टार्टअप्स को हतोत्साहित कर रहा है । और केंद्र सरकार के खुद के “एक राष्ट्र, एक टैक्स”, “इज़ ऑफ बिजनेस”, आदि कथनों को धत्ता बता रहा है।
केंद्र सरकार को ये स्वीकार करना होगा की उपरोक्त और उपरोक्त जैसी व्यथाओं का निदान किये बिना केंद्र सरकार की नीतियों में कथाशिल्प का लालित्य तो होगा पर वो हकीकत से कोसों दूर होगा, जो जनसाधारण के एक बड़े वर्ग में क्षोभ और हतोत्साह का कारण बनेगा।
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