2018 में हुए “बंगाल पंचायत चुनाव” से ले कर अभी तक बंगाल में, ज्ञात आंकड़ों के अनुसार, 136 बीजेपी कार्यकर्ताओं की “पोलिटिकल किलिंग” हुई है और 1500 से ज्यादा कार्यकर्ता गंभीर रूप से जख्मी हुए हैं। हत्या कर लटकाये गये लोगों की संख्या देखने के लिये सिर्फ गूगल पर "बीजेपी वर्कर्स हैंगड इन बंगाल” टाइप करना ही बहुत है। संख्या इतनी अधिक है कि उसे इस लेख में समेट पाना संभव नहीं, इसलिये उनकी चर्चा नहीं कर रहा। स्थिति सिर्फ इतने से ही समझ लीजिये की, 5 मार्च 2018 को केरला कम्युनिस्ट पार्टी के मीटिंग में केरला के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री पिनाराई विजयन पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए ये बयान देते हैं कि केरला में कम्युनिस्टों द्वारा अपनाया गया “पोलिटिकल किलिंग” का तरीका सही नहीं है। उन्हें “बंगाल मॉडल” अपनाना चाहिये। केरला के “पोलिटिकल किलिंग” में काफी मार-धाड़ होने से शोर-शराबा ज्यादा हो जाता है जबकि बंगाल में विरोधियों को जिंदा गाड़ दिया जाता है और मिट्टी ढकने से पहले गढ़े में नमक की बोरियाँ भर दी जाती है ताकि भविष्य की जांच में हड्डी तक न मिले।
आश्चर्य है बंगाल के बंगालियों को इसपर कोई आश्चर्य नहीं होता।
शायद! इसलिये बंगाल में पोलिटिकल किलिंग मोटे तौर पर पिछले 50 सालों से बदस्तूर जारी है।जिसकी नींव 1947 के स्वाधीनता उपरांत 1960 के दशक में ही पड़ गई थी।
पश्चिम बंगाल के मार्क्सवादियों ने 1967 में पहली बार सत्ता का स्वाद चखा था जब “संयुक्त मोर्चा सरकार (यूनाइटेड फ्रंट)” की सरकार सत्ता में आई। कांग्रेस तब तक काफी कमजोर पड़ चुकी थी।
शासन बदलते ही, विचारधारायें बदलने लगी, अब बल का उपयोग या तो जायज़ माना जाने लगा था या परस्पर विरोधी व्याख्याओं के माध्यम से उचित ठहराया जाने लगा था। "कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ चाइना” के अध्यक्ष माओ ज़ेदॉन्ग की एक टिप्पणी "सत्ता! बंदूक की बैरल की छत्रछाया में पनपती है” को, संविधान द्वारा शासित एक गणतंत्र में काफी अलग लक्ष्यों का पीछा करने वाले बंगाल के आपराचिक लोगों द्वारा चुपचाप अपना लिया गया था। कोलकाता की सड़कों पर सर्वहारा वर्ग के शासन की कसम खाते सशस्त्र कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) कैडरों के जुलूस, आम हो चले थे।
1977 में मार्कसिस्टों के शासन में पूरी तरह काबिज होने के बहुत पहले ही 17 मार्च 1970 को बर्दवान में माकपा कैडरों द्वारा घर में घुस कर साई परिवार के सदस्यों के साथ बर्बरतापूर्ण पूर्ण ढंग से मारपीट की जाती है, क्योंकि पीड़ित कांग्रेस के अनुयायी थे और माकपा के प्रति निष्ठा को बदलने से इनकार कर रहे थे। इतना ही नहीं, घर के मुखिया की दोनों आँखें निकाल ली जाती है और बेटों के खून से सने चावल को माँ के मुहँ में जबरदस्ती ठूंस दी जाती है, जिस हादसे से माँ, एक दशक बाद, अपने मरते दम तक बाहर नहीं आ पाई।
1972 और 1977 के बीच का समय, सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार, पुलिस प्रशासन और डॉक्टरों के लिये एक भयावह अनुभव भरा रहा क्योंकि “अध्यक्ष माओ” से प्रेरित, “नक्सली नेता” चारु मजूमदार और उनके साथियों ने 1971 में राज्य के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी थी और वे युवाओं और कॉलेज के छात्रों को ये सिखला रहे थे कि कैसे सरकारी अधिकारियों,पुलिसकर्मियों, व्यापारियों,जमींदारों, वकीलों, विरोधी नेताओं और विरोधियों की हत्या कि जाती है। जिसके प्रतिउत्तर में, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की आंदोलन को कठोरतम तरीके से कुचलने की मंशा-अनुसार, रे को भी बंगाल में सख्त कदम लेने पड़ा जिसमे से कुछ कदम असंवैधानिक भी थे। रे के इन कदमों को कम्युनिस्ट भुनाने में सफल रहे। नतीजन आज रे के उस शासन अवधि को आपातकाल, पुलिस अत्याचार, फर्जी मुठभेड़ों और अन्य अनगिनत आरोपों द्वारा चिह्नित किया जाता है। उस दौरान की अराजकता ने बंगाल के समाज, कला और साहित्य पर गहरा प्रभाव छोड़ा।
1977 में मार्क्सवादियों के बंगाल के सत्ता पर काबिज होने के बाद, ज्योति बसु के नेतृत्व वाली पहली दो सरकारें न केवल उग्रवादी व्यापार संघवाद,कारखाना बंदी और सामान्य हमलों के लिये जाना जाता है बल्कि ये अवधि क्रूरतम राजनीतिक हिंसा का भी गवाह बनीं। यही वह समय था जब जिलों में माकपा नेताओं ने पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया था, और वो ऐसा, भूमि सुधारों और पंचायती राज के नाम पर कर रहे थे। माओवादियों ने अपने पूरे शासनकाल के दौरान संगठित तरीके से “राजनीतिक हत्या” को राजनीतिक साधन के रूप में इस्तेमाल किया। विडंबना यह है की एक ओर जहाँ प्रतिबद्ध बुद्धिजीवियों का एक जाल द्वारा इसका पोषण किया गया, जो अक्सर पार्टी कार्ड धारक थे और अपने साहित्यिक और बौद्धिक पैदावन में विपुल थे, वहीं दूसरी ओर इन माओवादियों ने हिंसा को नियंत्रण और विनियमिता का साधन बनाया, खासकर समाज के निचले तबके के हेतु। असहाय किसान, मछुआरे, छोटे व्यापारी, शरणार्थी, इनके आसान चारे थे जो या तो इनके “सर्वहारा वर्ग की सरकार” के बनावटी चेहरों के प्रभाव में या अपने आर्थिक अभाव में इनके साथ हो रहे थे या फिर इन्हें बल पूर्वक पार्टी लाइन का हिस्सा बनने को मजबूर किया जाता था। आज के युवा को शायद ज्ञान भी न हो इन माओवादियों की “हरमद वाहिनी” नाम से एक “मोटरबाइक गैंग” हुआ करती थी। जिनके आतंक फैलाने का पैटर्न होता था विरोधियों के घर की महिलाओं को डराना, झोपड़ियों को जलाना, घर के सदस्यों को मारना और पुरुषों को बंधक बनाना और छोड़ने से पहले एकत्रित अनाज में आग लगा देना। अक्सर ग्रामीणों को गांव छोड़ने और पड़ोसी गांवों में शिविरों में रहने के लिये मजबूर किया जाता था या फिर उन्हें राज्य को पूरी तरह से छोड़ना पड़ता था।
बंगाल कम्युनिस्टों द्वारा की गई कुछ और उल्लेखनीय “राजनीतिक हत्या”
बांग्लादेशी शरणार्थी या तो वोट बैंक बनाकर लाये ही जाते थे या फिर आने के बाद सरकारी तंत्रों के उपयोग/दुरुपयोग द्वारा बंगाल माकपा के “वोट बैंक” बनने को मजबूर किया जाता था। विरोध का अंजाम था समूल नाश। ऐसी ही एक घटना है “मरीचझापी नरसंहार”। साठ हजार बंगाली “हिन्दू दलित” बांग्लादेश में हो रहे उत्पीड़न के कारण बांग्लादेश से भाग कर भारत आये हुए थे और केंद्र सरकार द्वारा प्रबंधित किये गये उड़ीसा के दंडकारण्य पुनर्वास केंद्र में रह रहे थे। किंतु वे बंगाल वाम मोर्चे के चुनावी वादों से प्रभावित हो सुदेरबन में मरीचझापी में आ कर बस चले थे। जनवरी 1979 में ठीक सरस्वती पूजा के दिन ज्योति बसु सरकार की पुलिस ने माओवादी कॉमरेडों के साथ मिल कर उनपर खुलेआम गोलियां तड़तड़ा दी। उस गोलीबारी में कितने मरे, कितने भागने की कोशिश में बगल की राइमंगल नदी में डूब गये, कितने मृत शरीरों को इन्होंने उस नदी में गाड़ दिया, आजतक इसकी कोई गिनती नहीं है। वह लाइव टेलीविज़न का युग नहीं था और मीडिया टीमों / संसदीय प्रतिनिधिमंडलों को नरसंहार के बाद क्षेत्र में प्रवेश करने से रोक दिया गया था। बसु ने उस घटना से पहले एक आर्थिक नाकेबंदी की घोषणा करते हुए उन शरणार्थियों पर ये इल्ज़ाम लगाया था कि शरणार्थी एक आरक्षित वन के प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर रहे हैं। जबकि शोधकर्ताओं ने बाद में पाया कि शरणार्थियों ने वामपंथियों की छत्रछाया में आने से इनकार कर दिया था और वे मरीचझापी को छोड़ना भी नहीं चाह रहे थे।
अप्रैल 1982, जब हिन्दू धार्मिक पंथ “आनंद मार्ग” के 17 भिक्षुओं को दक्षिण कोलकाता के मध्य में बिजोन सेतु पर माकपा कार्यकर्ताओं द्वारा जिंदा जला दिया गया था और उल्टा उनपर ये इल्ज़ाम लगाया गया कि भिक्षु बच्चा चोर थे। जबकि हकीकत में वो लोग कोलकाता के तिलजला केंद्र में एक "शैक्षिक सम्मेलन" में देश भर से आये हुए थे। असल में, बंगाल सरकार को ये चिंता थी कि आनंद मार्ग राज्य में दुर्जेय बल बनकर उभर रहा है।
नानूर नरसंहार, 27 जुलाई 2000 - माकपा कैडरों और स्थानीय नेताओं ने 11 भूमिहीन मुस्लिम मजदूरों को सिर्फ इसलिये मार डाला क्योंकि वे विपक्षी पार्टी के समर्थक थे और उस दिन अतिक्रमण और भूमि कब्जाने का विरोध कर रहे थे। चश्मदीद गवाहों को भी मारा गया था। स्थानीय स्टेट्समैन ने एक संपादकीय में लिखा था, "जुलाई 2000 के भीषण नानूर नरसंहार में मुख्य गवाह पर हमला करने का एकमात्र उद्देश्य था की जिम्मेदारों के खिलाफ गवाही को किसी भी कीमत पर रोका जा सके”।
ममता बनर्जी का उदय
बसु के कार्यकाल के दौरान ममता बनर्जी को प्रसिद्धि दिलाने वाली घटनाओं में दो घटना उल्लेखनीय है। एक - 21 जुलाई, 1993, जब कोलकाता के एसप्लैनडे में युवा कांग्रेस आंदोलनकारियों पर बसु के पुलिस ने गोलीबारी करी थी, 13 लोग मारे गये थे। दूसरा- ऊपर उल्लेखित नानूर नरसंहार।
फिर 14 मार्च 2007 की “नंदीग्राम नरसंहार”, जब बसु के उत्तराधिकारी बुद्धदेव भट्टाचार्य की पुलिस ने माकपा कॉमरेडों के साथ मिलकर नंदीग्राम में गोलीबारी की। ममता बनर्जी और उनकी टी.एम.सी को स्थापित करने में इस घटना का भी बड़ा योगदान रहा। बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली सरकार, पुरबिया मेदिनीपुर जिले के नंदीग्राम में गरीबों और किसानों की 10,000 एकड़ कृषि भूमि को एक विदेशी कंपनी को देने हेतू जबरन अधिग्रहण करना चाह रही थी। गांववाले “भूमि रक्षा समिति” का गठन कर अपनी ज़मीन छीनने का विरोध कर रहे थे। उस दिवस उन पर सबसे पहले सीपीआई-एम की हरमद वाहिनी ने हमला किया, जिन्होंने ग्रामीणों की झोपड़ियों में आग लगाई और और किसानों को धमकी दी, किसानों ने विरोध किया जिससे पुलिस-गोलीबारी की जमीन तैयार हुई। गोलीबारी में ज्ञात रूप से 14 किसानों की मौत हो गई और 70 से अधिक घायल हो गये। वास्तविक आंकड़े कभी सामने नहीं आये, गांव वाले आज भी किसानों के शवों के ढेर को देखे जाने की बात करते हैं।
2011 में सत्ता संभालने से पहले, ममता बनर्जी कहा करती थी "हम बदलाव की राजनीति लायेंगे, प्रतिशोध की नहीं।" लेकिन हत्या और युद्ध आज भी बदस्तूर जारी है। पहले कम्युनिस्ट नेताओं की हत्या होती थी और आज बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं की हो रही है। कल के माकपा कैडर आज टी.एम.सी के हो गये हैं। कम्युनिस्ट आज खुश हैं क्योंकि आज भी वो बेरोकटोक अपने “विचारधारा” का विस्तार कर पा रहे हैं और ऊपर से “अपनी सरकार” नहीं होने से इल्ज़ाम भी उन पर नहीं आता। और ममता बनर्जी, अंधाधुन उन्हीं का अनुसरण किये जा रही है जिनका विरोध कर वो सत्ता में पहुंची थी।
उल्लेखनीय ये भी है कि भट्टाचार्जी के शासन के अंतिम वर्षों में मार्क्सवादी कैडरों में एक वैचारिक पतन देखने को मिला था और भ्रष्टाचार क्षेत्रीय प्रभुत्व के पीछे प्रेरक शक्ति बन गया था। पंचायती राज हजारों लोगों के लिये धन कमाने का मशीन बन चुका था। टी.एम.सी इससे अछूत नहीं रह पाई, ये गिरावट आज भी बदस्तूर जारी है। बल्कि यों कहिये की ममता बनर्जी अपने पूर्वर्ती कम्युनिस्टों से भी आगे निकल चुकीं हैं, इतना आगे की “पोलिटिकल किलिंग” के स्टाइल का अपना एक “बंगाल मॉडल” बन चुका है।(जिसकी चर्चा मैंने ऊपर करी है)
सारांश
कम्युनिस्ट स्वर्ग, अनिवार्य रूप से हिंसा, उत्पीड़न और दमन के दम पर खड़ा एक ऐसा अवरोधक रहा है जिसने अनिवार्य रूप से अपने प्रभाव क्षेत्र के क्षेत्र-विशेष सांस्कृतिक एवम बौद्धिक प्रवाह को अवरुद्ध कर उसका नैतिक पतन किया है। गरीब, किसान और भूमिहीन मज़दूरों के नाम पर ताकत हासिल करने वाली सर्वहारा की सरकार, उन्ही गरीब, किसान और भूमिहीन मज़दूरों को कुचलने में एक पल की देरी नहीं करती। विरोध और विरोधियों का संगठीत नृशंस नरसंहार इन कम्युनिस्टों की संस्थागत परंपरा, सोच और राजनीतिक आदत होती है।
बंगाल गाथा का भी सदृश परिदृश्य रहा है। कम्युनिस्टों ने न केवल बंगाल का ह्रास किया बल्कि बंगाल की राजनीति हिंसा का संस्थागतकरण भी कम्युनिस्टों का ही एक विलक्षण योगदान रहा। और उसी परंपरा और सोच को आगे बढ़ाने का काम ममता बनर्जी और उनकी टी.एम.सी ने किया और आज भी कर रही है।
आश्चर्य है! कि “बंगाली” जो सदा से अपनी संस्कृति, भाषा और बौद्धिक सम्पन्नता को ले कर सजक, संवेदनशील, समर्पित और गौरवान्वित रहे हैं, आज भी आश्चर्यचकित नहीं हैं।
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